श्री गिरिराज जी
कछु माखन कौ बल बढ़ौ, कछु गोपन करी
सहाय
श्री राधे जू की कृपा से गिरिवर लियौ
उठाय
श्री गोवर्धन मथुरा से 22
किमी० की दूरी पर स्थित है। पुराणों के अनुसार श्री गिरिराज जी को
पुलस्त्य ऋषि द्रौणाचल पर्वत से ब्रज में लाये थे। दूसरी मान्यता यह भी
है कि त्रेता युग में दक्षिण में जब राम सेतुबंध का कार्य चल रहा था तो
हनुमान जी इस पर्वत को उत्तराखंड से ला रहे थे। लेकिन सेतु बन्ध का
कार्य पूर्ण होने की देव वाणी को सुनकर हनुमान जी ने इस पर्वत को ब्रज
में स्थापित कर दिया। इससे गोवर्धन पर्वत बहुत द्रवित हुए और उन्होंने
हनुमान जी से कहा कि मैं श्री राम जी की सेवा और उनके चरण स्पर्श से
वंचित रह गया। यह वृतांत हनुमानजी ने श्री राम जी को सुनाया तो राम जी
बोले द्वापर युग में मैं इस पर्वत को धारण करुंगा एवं इसे अपना स्वरूप
प्रदान करुंगा।
भगवान श्री कृष्ण बलराम
जी के साथ वृन्दावन में रहकर अनेकों प्रकार की लीलाएँ कर रहे थे।
उन्होंने एक दिन देखा कि वहाँ के सब गोप इन्द्र-यज्ञ करने की तैयारी कर
रहे हैं। भगवान श्री कृष्ण सबके अन्तर्यामी और सर्वज्ञ हैं उनसे कोई
बात छिपी नहीं थी। फ़िर भी विनयावनत होकर उन्होंने नन्दबाबा से पूँछा- "बाबा
आप सब जे का कर रहे हो? ।" तो नन्दबाबा और सभी
ब्रजवासी बोले - "लाला, हम इन्द्र की पूजा करवे की तैयारी कर रहे
हैं। वो ही हमें अन्न, फ़ल आदि देवै।" इस पर कन्हैया ने सभी ब्रजवासियों से कहा - "अन्न,
फ़ल और हमारी गायों को भोजन तो हमें जे गोवर्धन पर्वत देवै। तुम सब ऐसे
इन्द्र की पूजा
काहे कू करौ। मैं तुम सबन ते गोवर्धन महाराज की पूजा कराउंगो जो तुम्हारे सब
भोजन, पकवान आदिन कू पावैगो और सबन कू आशीर्वाद भी देवैगौ।" इस पर सभी
ब्रजवासी और नंदबाबा कहने लगे - लाला! हम तो पुराने समय ते ही इन्द्र
कू पूजते आ रहे हैं और सभी सुखी हैं, तू काहे कू ऐसे देवता की पूजा
करावै जो इन्द्र हम ते रूठ जाय और हमारे ऊपर कछु विपदा आ जावै।" तो लाला
ने कहा - ’आप सब व्यर्थ की चिन्ता कू छोड़ कै मेरे गोवर्धन की पूजा करौ।"
तो सभी ने गोवर्धन महाराज की पूजा की और छप्पन भोग, छत्तीस व्यंजन आदि
सामग्री का भोग लगाया। भगवान श्री कृष्ण जी गोपों को विश्वास दिलाने
के लिये गिरिराज पर्वत के ऊपर दूसरे विशाल रूप में प्रकट हो गये और उनकी
सभी सामग्री खाने लगे। यह देख सभी ब्रजवासी बहुत प्रसन्न हो गये।
जब अभिमानी इन्द्र को पता
लगा कि समस्त ब्रजवासी मेरी पूजा को बंद करके किसी और की पूजा कर रहे
हैं, तो वह सभी पर बहुत ही क्रोधित हुए। इन्द्र ने तिलमिला कर प्रलय
करने वाले मेघों को ब्रज पर मूसलाधार पानी बरसाने की आज्ञा दी। इन्द्र
की आज्ञा पाकर सभी मेघ सम्पूर्ण ब्रज मण्डल पर प्रचण्ड गड़गड़ाहट,
मूसलाधार बारिश, एवं भयंकर आँधी-तूफ़ान से सारे ब्रज का विनाश करने लगे।
यह देख सभी ब्रजवासी दुखी होकर श्री कृष्ण जी से बोले - "लाला तेरे कहवे
पै हमने इन्द्र की पूजा नाय की जाते वो नाराज है गयौ है और हमें भारी
कष्ट पहुँचा रहौ है अब तू ही कछु उपाय कर।" श्री कृष्ण जी ने
सम्पूर्ण ब्रज
मण्डल की रक्षा हेतु गोवर्धन पर्वत को खेल खेल में उठा लिया एवं अपनी
बायें हाथ की कनिका उंगली पर धारण कर लिया और समस्त ब्रजवासियों, गौओं
को उसके नीचे एकत्रित कर लिया। श्री कृष्ण जी ने तुरन्त ही अपने
सुदर्शन चक्र को सम्पूर्ण जल को सोखने के लिये आदेशित किया। श्री कृष्ण
जी ने सात दिन तक गिरिराज पर्वत को उठाये रखा और सभी ब्रजवासी
आनन्दपूर्वक उसकी छ्त्रछाया में सुरक्षित रहे। इससे आश्चार्यचकित इन्द्र को
भगवान की ऐश्वर्यता का ज्ञान हुआ एवं वो समझ गये कि यह तो साक्षात परम
परमेश्वर श्री कृष्ण जी हैं। इन्द्र ने भगवान से क्षमा-याचना की एवं सभी
देवताओं के साथ स्तुति की।
श्रीवृन्दावन के मुकुट स्वरूप श्री
गोवर्धन पर्वत श्री कृष्ण के ही स्वरूप हैं। श्री कृष्ण सखाओं सहित
गोचारण हेतु नित्य यहाँ आते हैं तथा विभिन्न प्रकार की लीलायें करते
हैं। प्राचीन समय से ही श्री गोवर्धन की परिक्रमा का पौराणिक महत्व है।
प्रत्येक माह के शुक्लपक्ष की एकादशी से पूर्णिमा तक लाखों भक्त यहाँ
की सप्तकोसी परिक्रमा पैदल एवं कुछ भक्त दंडौती (लेट कर) लगाते हैं।
प्रति वर्ष गुरु पूर्णिमा (मुड़िया पूनौ) पर यहाँ की परिक्रमा लगाने का
विशेष महत्व है, इस अवसर पर लाखों भक्त परिक्रमा लगाते हैं। श्री
गिरिराज तलहटी समस्त गौड़ीय सम्प्रदाय अष्टछाप कवि एवं अनेक वैष्णव रसिक
संतों की साधाना स्थली रही है।
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