वृन्दावन धाम के दर्शनीय स्थल
निधिवन
: श्री राधारानी की अष्ट सखियों में प्रधान श्री ललिता सखी जी के अवतार
रसिक संत संगीत शिरोमणि श्री स्वामी हरिदास जी महाराज की यह साधना स्थली
है। श्री स्वामी हरिदास जी नित्य यमुना स्नान करके यहीं पर
प्रिया-प्रियतम की साधना किया करते थे। यहीं पर उन्होंने श्री बाँके
बिहारी जी महारज को प्रकट किया। यह स्थली आज भी वृन्दावन के प्राचीन
रूप को संजोये है। यहाँ पर श्री प्रिया-प्रियतम आज भी रात्रि में रास
रचाते हैं। यहाँ श्री स्वामी हरिदास जी की समाधि, रंग महल, बाँके बिहारी
जी का प्राकट्य स्थल, राधा रानी बंशी चोर आदि दर्शनीय हैं। सम्राट अकबर
ने तानसेन के साथ यहाँ स्वामी हरिदास जी महारज के दर्शन किये थे, एवं
स्वामी श्रीहरिदास जी ने अकबर के अहंकार को भंग किया था। विस्तृत वर्णन
हेतु
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बाँके बिहारी मन्दिर
: यह वृन्दावन का सबसे प्रमुख मन्दिर है। श्री बाँके बिहारी जी के
दर्शन करे बिना तो वृन्दावन की यात्रा भी अधूरी रह जाती है। श्री बाँके
बिहारी जी को स्वामी श्री हरिदास जी महारज ने निधिवन में प्रकट किया था। पहले
बिहारी जी की सेवा निधिवन में ही होती थी। वर्तमान मन्दिर का निर्माण
सन् 1864 में सभी गोस्वमियों के सहयोग से कराया गया। तब से श्री बाँके
बिहारी जी महाराज इसी मन्दिर में विराजमान हैं। यहाँ पर मंगला आरती साल
में सिर्फ़ एक बार जन्माष्टमी के अवसर पर होती है। अक्षय तृतीया पर चरण
दर्शन, ग्रीष्म ऋतु में फ़ूल बंगले, हरियाली तीज पर स्वर्ण-रजत हिण्डोला,
जन्माष्टमी, शरद पूर्णिमा पर बंशी एवं मुकुट धारण, बिहार पंचमी, होली
आदि उत्सवों पर विशेष दर्शन होते हैं। विस्तृत वर्णन हेतु
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राधा वल्लभ मन्दिर
: यह वृन्दावन का प्राचीन एवं प्रसिद्ध मन्दिर है।
इसमें श्री हित हरिवंश द्वारा सेवित श्री राधावल्लभ जी के दर्शन हैं।
श्री हितहरिवंश ने विवाह के समय दहेज के रूप में श्री राधावल्लभ विग्रह
को प्राप्त किया था। "राधावल्लभ दर्शन दुर्लभ" यह उक्ति ही पर्याप्त है
श्री राधावल्लभ जी की प्रेम तथा लाड़ से भरी जानकारी के लिए। जिस प्रेम
भाव तथा कोमलता से इनकी सेवा पूजा होती है वह देखते ही बनती है। ये
ठाकुर अपनी बाँकी छवि से सबको मोहित कर रहे हैं। यहाँ पर सात आरती एवं
पाँच भोग वाली सेवा पद्धति का प्रचलन है। यहाँ के भोग, सेवा-पूजा श्री
हरिवंश गोस्वामी जी के वंशजों द्वारा सुचारू रूप से की जाती है। यहाँ
पर समाज गायन, व्याहुला उत्सव एवं खिचड़ी महोत्सव विशेष हैं।
श्रीनृसिंह मन्दिर
: श्री राधावल्लभ घेरे के प्रवेश द्वार के पास ही
प्राचीन श्री नृसिंह जी भगवान् का मन्दिर है। नृसिंह चतुर्दशी के दिन
शाम को यहाँ हिरण्यकशिपु वध की लीला का आयोजन होता है।
सेवा कुँज
: गोस्वामी हित हरिवंश द्वारा प्रकट किये गये लीला स्थलों में सेवा
कुंज का विशेष स्थान है। यहाँ एक छोटे से मन्दिर में श्रीराधिका के
चित्रपट की पूजा होती है, चित्र में श्री कृष्ण राधाजू के चरणों की सेवा
कर रहे हैं। साथ में ही ललिता और विशाखा सखी के भी दर्शन हैं। आज भी
श्री राधा-माधव यहाँ विहार करते हैं अतः रात्रि काल में कोई भी भक्त
अन्दर प्रवेश नहीं करता यहाँ तक कि बन्दर, पक्षी भी स्वतः ही बाहर निकल
जाते हैं। रसखान ने अपने पद में यहाँ की झाँकी का वर्णन इस प्रकार किया
है-"देख्यो दुरयो वह कुंज कुटीर में, बैठयो पलोटत राधिका पायन"। यहाँ
ललिता कुण्ड है जिसे रासलीला के समय ललिता जी को प्यास लगने पर
श्रीकृष्ण जी ने अपनी मुरली से प्रकट किया।
राधा दामोदर मन्दिर:
इस मन्दिर में श्री राधा दमोदर जी महाराज के दर्शन है। इनके साथ
सिंहासन में श्री वृन्दावन चन्द, श्री छैलचिकनिया, श्री राधाविनोद और
श्री राधामाधव के विग्रह विराजमान हैं। सनातन गोस्वामी जी गोवर्धन की
नित्य परिक्रमा करते थे। वृद्धावस्था में जब वे परिक्रमा करने में
असमर्थ हो गये तब श्री कृष्ण ने बालक रूप में उनको दर्शन दिये तथा उन्हें
गोवर्धन शिला प्रदान कर उसी की चार परिक्रमा करने का आदेश दिया। उस शिला
में श्री कृष्ण जी का चरण चिह्न, गाय के खुर का चिह्न एवं बंशी का
चिह्न अंकित है। सनातन गोस्वामी जी के तिरोभाव के पश्चात् श्री जीव
गोस्वामी ने इस शिला को श्री राधा-दामोदर मन्दिर में प्रतिष्ठित किया।
इस मन्दिर की चार परिक्रमा देने पर गोवर्धन की परिक्रमा का फ़ल मिलता
है।
राधा रमण मन्दिर
: श्री राधा रमण जी का मन्दिर श्री गौड़ीय वैष्णव सम्प्रदाय के
सुप्रसिद्ध मन्दिरों में से एक है। श्री गोपाल भट्ट जी शालिग्राम शिला
की पूजा करते थे। एक बार उनकी यह अभिलाषा हूई की शालिग्राम जी के
हस्त-पद होते तो मैं इनको विविध प्रकार से सजाता एवं विभिन्न प्रकार की
पोशाक धारण कराता। भक्त वत्सल श्री कृष्ण जी ने उनकी इस मनोकामना को
पूर्ण किया एवं शालिग्राम से श्री राधारमण जी प्रकट हुए। श्री राधा रमण
जी के वामांग में गोमती चक्र सेवित है। इनकी पीठ पर शालिग्राम जी
विद्यमान हैं।
श्रीराधा श्याम सुन्दर
मन्दिर : सन् 1578 की बसंत पंचमी को श्रीराधा
रानी जी ने अपने हृदय-कमल से श्री श्याम सुन्दर जी को प्रकट करके अपने परम
भक्त श्री श्यामा नन्द प्रभु को प्रदान किया था। सम्पूर्ण विश्व में
श्री श्याम सुन्दर जी ही एक मात्र ऐसे श्री विग्रह हैं जो श्री राधा
रानी जी के हृदय से प्रकट हुए हैं। कार्तिक मास में प्रतिदिन यहाँ भव्य
झाँकियों के दर्शन होते हैं।
श्री गोविन्द देव जी
मन्दिर : यह वृन्दावन का ईंट-पत्थरों का बना
प्रथम मन्दिर है। श्री गोविन्द देव जी का विग्रह श्री रूप गोस्वामी जी को गोमा टीला
से मिला था। इस मन्दिर का निर्माण गौड़ीय गोस्वामी श्री रघुनाथ भट्ट के
शिष्य जयपुर नरेश श्री मानसिंह ने संवत 1647 में कराया था। औरंगजेब के
शासन काल में इस मन्दिर की ऊपरी मंजिलों को तोड़ दिया गया था। इसी कारण
गोविन्द देव जी के विग्रह को जयपुर में राजा मानसिंह के राजभवन में ले
जाया गया जहाँ वह आज भी दर्शनीय हैं। सन् 1748 ई० में पुनः श्री
गोविन्द देव जी के प्रतिभू विग्रह की यहाँ स्थापना हूई एवं संवत 1877
में बंगाल के भक्त श्री नंदकुमार वसु ने वर्तमान मन्दिर का निर्माण
कराया। यहाँ पर गोविन्द देव जी और उनके वाम भाग में श्री राधा जी
विराजमान हैं। गोविन्द देव जी मन्दिर के पास ही श्री सिंहपौर हनुमान जी
का मन्दिर है।
श्री मदन मोहन जी:
यह मन्दिर आदित्य टीला पर स्थित है। प्राचीन मन्दिर का निर्माण राम दास
कपूर द्वारा श्री सनातन गोस्वामी जी की प्रेरणा से कराया गया। मुगल
शासकों के मन्दिरों पर हमलों के कारण श्री मदन मोहन जी को करौली में
विराजमान कर दिया गया। आज भी वे करौली में ही सेवित हैं। पुनः इस
मन्दिर का निर्माण नन्दकुमार वसु ने कराया। पुरी के राजा प्रताप रुद्र
के पुत्र श्री पुरुषोत्तम ने अति सुन्दर श्री राधा एवं श्री ललिता जी
के विग्रह वृन्दावन भेजे। श्री राधा जी को श्रीमदन मोहन जी के वामांग
में एवं श्री ललिता जी को दाहिने भाग में प्रतिष्ठित कर दिया गया। ये
सभी आज भी इस मन्दिर में सेवित हैं।
कृष्ण-बलराम मन्दिर(इस्कॉन)
: यह मन्दिर वृन्दावन-छटीकरा मार्ग पर स्थित
है। इसका निर्माण श्री ए०सी० भक्तिवेदान्त स्वामी द्वारा गठित
अन्तर्राष्ट्रीय श्री कृष्णभावनामृत संघ के तत्वावधान में सन् 1975 में
हुआ। प्रभुपाद के अनेक विदेशी शिष्यों की देखभाल में सेवापूजा की समस्त
व्यवस्था रहने से यह अंग्रेज मन्दिर नाम से प्रसिद्ध हो गया।
गर्भ-मन्दिर में तीन कक्ष हैं। मध्य कक्ष में श्री कृष्ण-बलराम के बहुत
ही सुन्दर विग्रह हैं। बायीं ओर श्रीनिताई-गौरांग महाप्रभु सेवित हैं।
दायें कक्ष में श्री राधा-श्यामसुन्दर युगल किशोर अपनी प्रियतमा सखी
ललिता-विशाखा के साथ सुशोभित हैं।
श्री रंगनाथ जी मन्दिर
: श्री वृन्दावन का यह सबसे विशाल मन्दिर
है। दक्षिण शैली के इस वैभवशाली मन्दिर का
निर्माण सेठ श्री राधाकृष्ण, उनके बड़े भाई सेठ लक्ष्मीचन्द्र तथा उनके
छोटे भाई सेठ गोविन्द दास जी ने अपने गुरु की प्रेरणा से कराया था।
मूल मन्दिर में श्री रंगनाथ जी
विराजमान हैं, लक्ष्मी जी उनके चरणों की सेवा कर रही हैं। सोने का साठ
फुट ऊँचा खम्भा, सोने की मूर्तियाँ, विशाल रथ दर्शनीय है। चैत्र मास
में यहाँ पर भव्य मेले का आयोजन होता है जिसमें एक दिन रंगनाथ जी रथ
में सवार होते हैं।
शाह जी का मन्दिर: यह
टेड़े खम्भे वाले मन्दिर के नाम से प्रसिद्ध है। मन्दिर का निर्माण लखनऊ
के कुन्दनलाल शाह जी ने कराया। इस मन्दिर में श्री राधा-रमण के विग्रह
सेवित हैं। इस मन्दिर में संगमरमर के टेड़े खम्भे आकर्षित करते हैं।
बसंत पंचमी पर भव्य बसंती कमरा दर्शनीय है।
गोपेश्वर महादेव : जब श्री कृष्ण महारास कर रहे थे, तो महादेव जी
को इस दिव्यलीला को देखने की इच्छा हुई। लेकिन महारास में किसी भी
पुरुष का प्रवेश वर्जित था। उल्लेखनीय है कि ब्रज की रसिक उपासना में
श्री कृष्ण जी ही एक मात्र पुरुष हैं अन्य सभी सखियाँ। अतः शंकर जी ने
अष्ट सखियों में प्रधान श्री ललिता सखी जी से गोपी बनने की दीक्षा ली।
शंकर जी यहाँ गोपी रूप में विराजमान हैं। श्री गणेश जी, पार्वती जी,
श्री नन्दीश्वर जी आदि साथ में विराजमान हैं।
कालीदह : यमुना जी में कालियानाग का एक कुण्ड था। उसका जल विष के कारण
खौलता रहता था। उस विषैले जल के कारण, वृक्ष, गाय, पशु-पक्षी आदि सभी
मर जाते थे। जब श्री कृष्ण ने देखा कि मेरी रमण स्थली को यह दुष्ट
दूषित कर रहा है, तो श्री कृष्ण ने कदम्ब वृक्ष पर चढ़कर यमुना में
छलांग लगा दी। श्री कृष्ण के चरणों की चोट से कालिया नाग की सारी शक्ति
क्षीण हो गयी जिससे कालिया नाग श्री कृष्ण के शरणागत हो गया। अपनी शरण
में आये कालिया नाग पर कृपा कर श्री कृष्ण ने उसे समुद्र में जाने का
आदेश दिया।
केशीघाट : श्री कृष्ण ने यहाँ केशीदैत्य का वध किया था। यहाँ पर
यमुना जी का मन्दिर भी स्थित है। नित्य सायं यहाँ यमुना जी की आरती होती
है।
अक्रूर
घाट : अक्रूर जी कृष्ण और बलरामजी को वृन्दावन से मथुरा ले जा रहे थे।
तो उन्होंने रास्ते में रथ को रोककर श्री कृष्ण-बलराम जी से कहा कि मैं
अभी यमुना स्नान और संध्या करके आता हूँ। जब अक्रूर जी ने यमुना जी में
डुबकी लगाई तो उन्हें यमुना के अन्दर कृष्ण-बलराम जी के दर्शन हुए।
उन्होंने बाहर रथ में दोनों को सवार देखा तो उन्हें ये अपना भ्रम लगा।
लेकिन जैसे ही उन्होंने दोबारा डुबकी लगायी तो उन्हें श्री कृष्ण के
विराट रूप के दर्शन हुए।
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